मुंगेर में सूफी संत हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह के दो दिवसीय 849 वाँ उर्से मुबारक का कुरानखानी व मिलादशरीफ के साथ हुआ आगाज, 18 जनवरी को शाम 7.30 बजे की जाएगी चादर पोषी। इस मौके पर दूर दूर से लोग उनकी ज्यारत के लिए उनके मजार शरीफ पर आते है। और सच्चे दिल से मांगी गई हर मुराद पूरी करते है बाबा।
रिपोर्ट :- रोहित कुमार
दरअसल मुंगेर जहां एक और ऐतिहासिक धरोहरों के लिए जाना जाता है। तो वहीं दूसरी ओर सूफी संतों के शहर के नाम से भी जाना जाता है। उन्ही मे से एक है हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह, जिनका सन 1926 मे प्रकाशित मुंगेर गजेटियर के मुताबिक अजमेर के हज़रत मोईनउद्दीन चिश्ती के शागिर्द फारस के सूफी पीर शाह नाफे(असली नाम अबु अवैद) ज्ञान का आलोक बांटते हुए हिजरी सन 596 ई0 सन 1176)मे मुंगेर पहुंचे और यहीं बस गए और फिर उनका हिजरी सन 596 (ई0 सन 1176) मे शहादत हो गया।
जिनका आज दो दिवसीय 849 वाँ उर्से मुबारक का कुरानखानी व मिलादशरीफ के साथ आगाज हुआ। और 18 जनवरी को शाम 7.30 बजे चादर पोषी की जाएगी। इस मौके पर दूर दूर से लोग उनकी ज्यारत के लिए उनके मजार शरीफ पर आते है। ये दरवार बड़ा ही शखी दरवार है यहां सच्चे दिल से मांगी गई हर मुराद पूरी करते है बाबा। यहां लोग रोते हुए आते है और हंसते हुए जाते है।
वही हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह के मजार शरीफ के गद्दीनशीन सैय्यद मो0 शौकत अली ने बताया कि इस दरगाह शरीफ से जुड़ी ऐतिहासिक मान्यता यह है कि बंगाल के सूबेदार दनियाल ने (उस समय मुंगेर बंगाल का हिस्सा था) मुंगेर के किले का जीर्णोद्धार करने को ठानी। इस सिलसिले में एक अजीबोगरीब वाक्य हुआ हर दिन किले के दक्षिणी द्वार के पास जो दीवार दिन के समय उठाई जाती रात में वह गिर जाती। ऐसा कई बार होने के बाद दनियाल को एक रात ख्वाब मे किसी सूफी संत ने अपने कब्र पर मजार बनाने की सलाह दी।
ख्वाब में दनियाल को ये भी बताया गया कि जहाँ तक कस्तूरी कि आती मिलेगी उसके बाद ही किला के दीवार कि तामीर करवाना है। दूसरे दिन जब दनियाल उस जगह पर पहुंचा तो उसे वहाँ पर कस्तूरी कि खुशबू मिली और कस्तूरी कि खुशबू जहाँ तक मिली उसके बाद ही किला के दीवार का निमार्ण कार्य करवाया गया।दनियाल के द्वारा 903 हिजरी(ई0 सन 1414) उनके मजार का तामीर करवाया गया और तब से लेकर आज तक ये मजार हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह के मजार शरीफ के नाम से मशहूर हो गया।
इस मजार का अरबी में लिखा शिलालेख अभी भी मजार शरीफ की दीवारों पर मौजूद है।बाद में मुगल बादशाहों एवं नवाबों के द्वारा शाही खजाने से खर्च दिया जाता रहा। इसका फारसी मे लिखा हुआ शाही मुहर सहित प्रमाण पत्र अभी भी मजार शरीफ मे उपलब्ध है।