मुंगेर में पीर नफा शाह के 849वें उर्स मुबारक का कुरानखानी व मिलादशरीफ के साथ हुआ आगाज, यहां मांगी गई हर मुराद होती है पूरी जानिए

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मुंगेर, बिहार के ऐतिहासिक शहर में दो दिवसीय 849वां उर्से मुबारक सूफी संत हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह की याद में बड़े ही श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जा रहा है। इस पावन अवसर की शुरुआत कुरानखानी और मिलाद शरीफ के साथ की गई, जिसमें बड़ी संख्या में जायरीन (श्रद्धालु) शामिल हुए। इस उर्स का मुख्य आकर्षण 18 जनवरी को शाम 7:30 बजे होने वाली चादर पोशी है, जिसमें देश के कोने-कोने से अकीदतमंद शामिल होंगे और बाबा की मजार शरीफ पर चादर चढ़ाकर दुआएं मांगेंगे।

आस्था का प्रतीक : हर मुराद होती है पूरी

हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह की दरगाह को एक “शफी दरबार” यानी दुआओं को पूरा करने वाला स्थान माना जाता है। कहते हैं कि यहां जो भी शख्स सच्चे दिल से अपनी मुराद लेकर आता है, वह कभी खाली नहीं लौटता। लोग रोते हुए आते हैं, लेकिन बाबा की रहमत से हंसते हुए लौटते हैं। हर साल हजारों लोग यहां उर्स के मौके पर हाजिरी लगाने आते हैं और अपनी फरियाद बाबा के दरबार में पेश करते हैं।

मुंगेर : ऐतिहासिक और आध्यात्मिक विरासत की भूमि

मुंगेर केवल एक ऐतिहासिक शहर ही नहीं, बल्कि सूफी संतों की भूमि भी माना जाता है। यहां की फिजाओं में आज भी रूहानियत की खुशबू महसूस की जा सकती है। मुंगेर अपने किले, योग विद्यालय और धार्मिक स्थलों के लिए जाना जाता है, लेकिन इसके साथ ही यह शहर सूफी परंपराओं का भी साक्षी रहा है।

हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह का आगमन

सन 1926 में प्रकाशित “मुंगेर गजेटियर” के अनुसार, हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह का असली नाम अबु अवैद था। वे फारस के एक महान सूफी संत थे और अजमेर शरीफ के प्रसिद्ध सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के शागिर्द (शिष्य) थे। उन्होंने हिजरी सन 596 (ईस्वी 1176) में मुंगेर की धरती पर कदम रखा और यहीं रहकर रूहानी ज्ञान का प्रकाश फैलाया। उसी वर्ष उनकी शहादत हुई और यहीं उनकी मजार बनाई गई, जो आज एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बन चुकी है।

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दनियाल का ख्वाब और मजार की स्थापना की कहानी

हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह की मजार के पीछे एक बहुत ही रोचक और रहस्यमयी कथा जुड़ी हुई है। उस समय मुंगेर बंगाल का हिस्सा था और बंगाल के सूबेदार दनियाल ने मुंगेर के किले के जीर्णोद्धार का बीड़ा उठाया। परंतु दक्षिणी द्वार के पास एक दीवार बार-बार गिर जाती थी। यह असामान्य घटना कई बार हुई, जिससे दनियाल परेशान हो गया।

एक रात उसे सपने में एक सूफी संत ने दर्शन दिए और कहा कि वह स्थान उनकी कब्र है और वहाँ एक मजार बननी चाहिए। साथ ही यह भी बताया गया कि जहां तक कस्तूरी की खुशबू मिले, वहां तक मजार का निर्माण हो और उसके बाद किले की दीवार बनाई जाए।

अगली सुबह दनियाल उस स्थान पर पहुँचा और सचमुच वहाँ उसे कस्तूरी की खुशबू मिली। जहाँ तक खुशबू फैली, वहीं तक मजार का निर्माण कराया गया और फिर किले की दीवार बनाई गई। इस प्रकार हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह की मजार 903 हिजरी (ईस्वी 1414) में बनकर तैयार हुई और तभी से यह स्थल श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र बन गया।

शाही संरक्षण और ऐतिहासिक महत्व

हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह की मजार पर अरबी में लिखा शिलालेख आज भी मौजूद है, जो उस समय की ऐतिहासिकता को दर्शाता है। मुगल बादशाहों और नवाबों ने इस दरगाह को शाही संरक्षण दिया और इसके रख-रखाव के लिए खजाने से धन प्रदान किया जाता रहा। दरगाह में आज भी फारसी में लिखा हुआ एक शाही मुहर युक्त प्रमाण पत्र मौजूद है, जो इस दरगाह की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्ता को प्रमाणित करता है।

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गद्दीनशीन की भूमिका और परंपरा का निर्वहन

दरगाह शरीफ के वर्तमान गद्दीनशीन सैय्यद मोहम्मद शौकत अली साहब इस आध्यात्मिक विरासत की देखरेख कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि उर्स के अवसर पर न केवल धार्मिक क्रियाकलाप होते हैं बल्कि सामाजिक एकता और आपसी भाईचारे का संदेश भी दिया जाता है। दरगाह पर हर धर्म, जाति और पंथ के लोग बिना किसी भेदभाव के आते हैं और बाबा की बारगाह में अपनी हाजिरी लगाते हैं।

समापन : एकता, भक्ति और आस्था का पर्व

849वें उर्से मुबारक के इस अवसर पर एक बार फिर यह सिद्ध हो गया कि हजरत पीर नाफे शाह रहमतुल्लाह अलैह की शिक्षाएं आज भी लोगों के जीवन में मार्गदर्शक हैं। उनका जीवन त्याग, प्रेम और ईश्वर भक्ति का आदर्श है। मुंगेर की यह दरगाह केवल एक धार्मिक स्थल नहीं बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द और इंसानियत का प्रतीक है।

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