मुंगेर में सरस्वती पूजा को लेकर मूर्तिकार प्रतिमा को अंतिम रूप देने में जुटे। इधर बाजार में रेडीमेड मूर्तियों के आने से स्थानीय मूर्तिकारों को उचित मुनाफा नहीं होने के साथ ही प्रतिस्पर्धा भी बढ़ गई है। हालांकि पुरानी परंपरा को आज भी आगे बढ़ाने का काम वे कर रहे हैं, लेकिन लागत और मेहनत के अनुसार मुनाफा नहीं मिल पाता है। जिससे मूर्तिकारों में निराशा देखी जा रही है।
रिपोर्ट – रोहित कुमार
दरअसल मुंगेर के तारापुर में वसंत पंचमी को लेकर क्षेत्र में सरस्वती पूजा को लेकर मूर्तिकार प्रतिमा को अंतिम रूप देने में जुटे हैं। सरस्वती माँ का बड़ी से छोटी प्रतिमाओं का निर्माण किया जा रहा है। विद्या की देवी माता सरस्वती की आराधना को लेकर मूर्ति बनाने का कार्य अंतिम चरण में है। लेकिन इधर बाजार में रेडीमेड मूर्तियों के आने से स्थानीय मूर्तिकारों को उचित मुनाफा नहीं होने के साथ ही प्रतिस्पर्धा भी बढ़ गई है। धौनी निवासी मूर्तिकार शंकर साह, अजित कुमार,विभीषण साह,राम और श्याम, ने बताया कि पहले की अपेक्षा वर्तमान में मूर्तिकारों की स्थिति दयनीय है। हालांकि, पुरानी परंपरा को आज भी आगे बढ़ाने का काम वे कर रहे हैं, लेकिन लागत और मेहनत के अनुसार मुनाफा नहीं मिल पाता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मूर्ति निर्माण के बाद उसकी बिक्री नहीं हो पाती है।इस बार एक हजार से लेकर 10 हजार रुपए तक की मूर्तियां बनाई जा रही है। इस वर्ष ज्यादा मूर्ति की बिक्री होने की संभावना है।
वही कलाकारों का कहना है कि यह कार्य तो अच्छा है लेकिन बढ़ रही महंगाई के चलते इसमें फायदा दिन व दिन घटता जा रहा है। मां सरस्वती की प्रतिमा बनाने में जुटे लोगों की भी कमर तोड़ रही है। प्रतिमाओं के निर्माण में इस्तेमाल की जाने वाली चीजों की आसमान छूती कीमत ने कारीगरों को परेशान कर रखा है। उन्होंने कहा है कि कला की पूजा होती है कलाकार की नहीं। ग्राहकों की मांग को देखते हुए हर आकार की मूर्ति बनाई गई है। इस महंगाई के दौर में जहां हमलोग 100 मूर्तियां बनाते थे। इस बार 60 से कम ही बनाए हैं। वही बताते चलें कि आगामी 26 जनवरी को होने वाले सरस्वती पूजा के लिए मूर्तियों को अब अंतिम रूप दिया जा रहा है। बताया कि इस बार पहले की अपेक्षा मूर्तियों के लिए कोरोना काल के बाद से अग्रिम बुकिंग ज्यादा हुई है। वही मूर्तिकार शंकर साह ने बताया कि बसंत पंचमी आने के एक से डेढ़ महीना पहले से ही मां सरस्वती की प्रतिमा बनाना शुरू कर देते हैं। और यहां मिट्टी का प्रतिमा बनाया जाता है लेकिन जिस हिसाब से हम लोग मेहनत करते हैं उस हिसाब से उचित मुनाफा नहीं मिल पाता है। लेकिन क्या करें हम लोग करीब 20 सालों से बनाते आ रहे हैं। तो रोजी-रोटी चल रहा है।